कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी, डॉलर में मजबूती और देश के बढ़ते चालू खाता घाटा के साथ देश की आर्थिक हालत बेकाबू हो चली है। रुपये में लगातार जारी कमजोरी भारतीय कंपनियों के साख के लिए जहां नकारात्मक है वहीं रिकॉर्ड ऊचाई पर पहुंचा तेल सरकार की नाकामियों को सिरे से उजागर कर रहा है। पिछले चार साल के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में कमी के बावजूद भारत में इसकी किमतों में उफान बना रहा।
मोदी शासनकाल में कच्चे तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 28 डॉलर प्रति बैरल तक भी गिर चुकी है जो वर्तमान में 80 डॉलर प्रति बैरल पर देखी जा सकती है। इससे पूर्व की डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार के समय से तुलना की जाए तो यह अभी भी बहुत कम है। मई 2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई थी तो 109 डॉलर प्रति बैरल कच्चा तेल था और तब पेट्रोल 71 रुपये लीटर के करीब था।
मोदी शासनकाल में कच्चे तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में कभी भी बेलगाम नहीं हुई है बावजूद इसके सरकार ने जनता को इस मामले में रियायत नहीं दी। बीते चार सालों में सरकार ने नौ बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ा कर मनमोहन सरकार की तुलना में दोगुना टैक्स कर दिया। बेशक पेट्रोल और डीजल की कीमतों ने पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए हों पर मोदी सरकार के मंत्रियों का सपाट जवाब है कि अंतरराष्ट्रीय कारणों से पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े हैं।
यह बात समझ से परे है कि दुनियाभर के वादे-इरादे जता कर सत्ता हथियाने वाले बेबस क्यों हो जाते हैं। तेल की कीमत नियंत्रित करने के मामले में सरकार मानो युद्ध के मैदान में इन दिनों निहत्थी हो जबकि जनकल्याण के लिए ठोस कदम उठाना उसी की जिम्मेदारी है। रोचक यह भी है कि एक लीटर पेट्रोल पर करीब 20 रुपये टैक्स वसूलने वाली केंद्र सरकार और प्रति लीटर 17 रुपये कमाने वाली राज्य सरकार जब यह कहती है कि पेट्रोल डीजल पर टैक्स नहीं घटाएंगे तो ऐसा लगता है कि जनता को सरकारें ही लूट रही हैं। हो सकता है कि सरकार तेल के मामले में बेबस हो और अंतरराष्ट्रीय बाजार के आगे उसकी स्थिति कुछ न कर पाने वाली भी हो साथ ही उसके नियंत्रण से यह बेकाबू हो परंतु लोक कल्याण से लदी सरकार अपने स्तर पर कुछ तो रियायत दे सकती है। यह कह कर पल्ला झाड़ना कहां तक मुनासिब है कि अंतरराष्ट्रीय कारणों से ऐसा हो रहा है।
हो सकता है कि पेट्रोल- डीजल के दाम बढ़ाने के मामले में सरकार की बिल्कुल भूमिका न हो। देखा जाय तो सरकार की भूमिका तो गरीबी बढ़ाने में भी नहीं होती है। वह आतंकवाद भी नहीं बढ़ाती, बाढ़ लाने के लिए भी वह जिम्मेदार नहीं है, और न ही सूखा लाती है फिर भी जनता के हितों के लिए कठोर कदम क्यों उठाती है, उन्हें एक बेहतर जिंदगी देने की क्यों कोशिश करती है। जो कोशिश इस दौर में की जाती है क्या वही पेट्रोल व डीजल के मामले में जनता के लिए इन दिनों में करने की जरूरत नहीं है?
संवेदनशील सरकार वह होती है जो सबकी जिम्मेदारी लेती है और सब तरह से राहत देती है। तथ्य यह भी है कि इन दिनों यूपीए बनाम एनडीए का वाक युद्ध चल रहा है कि किसने कितना तेल महंगा किया है। सच्चाई यह है कि यूपीए के समय कच्चा तेल प्रति बैरल 145 डॉलर तक जा चुका था जबकि मोदी शासनकाल में यह 28 से 80 के बीच रहा है। ऐसे में तेल की कीमत पर नियंत्रण की जिम्मेदारी मोदी सरकार की कहीं अधिक दिखाई देती है।
सवाल उठता है कि पेट्रोल और डीजल के दाम क्यों बढ़ रहे हैं और सरकार इस दबाव के बावजूद कि तेल उसके लिए आफत बन रही है। कहा जा रहा है कि सरकार इसके दाम घटाना भी चाहे, तो घटा नहीं पा रही है। इसके पीछे एक बड़ा कारण कम जीएसटी कलेक्शन भी माना जा रहा है।
वित्त वर्ष 2018-19 में सेंट्रल जीएसटी के तौर पर छह लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा गया था, जो प्रति माह 50 हजार करोड़ से अधिक था। लेकिन जब मार्च में फरवरी के जीएसटी के कलेक्शन का आंकड़ा आया तो यह सिर्फ 27 हजार करोड़ रुपये थे। इस कारण सरकार पर टैक्स उगाही का दबाव बन गया और उसे खजाने की चिंता सता रही है। कम जीएसटी के दबाव में एक्साइज ड्यूटी घटाने का जोखिम वह नहीं ले पा रही है। ऐसे में पेट्रोल और डीजल की कीमत जनता पर भारी पड़ रही है।
बीते अप्रैल के पहले हफ्ते में पेट्रोल और डीजल को जीएसटी मे लाने की दिशा में प्रयास की बात कही गई थी। उत्पाद शुल्क घटाने कादबाव तो है पर वित्त मंत्रालय ऐसा कोई इरादा नहीं रखता है। खास यह भी है कि एक रुपये प्रतिलीटर की कटौती मात्र से ही 13 हजार करोड़ रुपये का घाटा हो जाएगा। जाहिर है कि सरकार इससे बच रही है और जनता पिस रही है। यदि ठोस लहजे में कहें कि तेल के दाम से लोगों को राहत देने के लिए सरकार तत्काल उत्पाद शुल्क घटाए तो क्या कोई असर उस पर पड़ेगा, उम्मीद न के बराबर ही है।
कमजोर रुपये की हालत और तेल की बढ़ती कीमतों को काबू में नहीं किया गया तो कमर टूटेगी जनता की भी और सरकार की भी। ईरान भारत को तेल निर्यात करना वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है जो सउदी अरब को पछाड़कर यहां पहुंचा है। हाल ही में अमेरिका ने ईरान पर अनेक प्रकार की पाबंदियां लगाई हैं और वह भारत पर भी ईरान से संबंध नहीं रखने का दबाव बना रहा है। इससे भारत के लिए तेल खरीदना और महंगा होगा।
गौरतलब है कि भारत यूएई और सउदी अरब से व्यापक पैमाने पर कच्चे तेल की खरीददारी करता है और ज्यादा कीमत भी देता है। ईरान के साथ अलग हिसाब है यहां से तेल सस्ता भी मिलता है साथ ही प्रीमियम भी नहीं देना पड़ता। इसके अलावा पैसा देने का व्यापक समय भी मिलता है। ऐसे में ईरान के साथ भारत का कच्चे तेल वाला व्यापार अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक सुगम है मगर अमेरिकी दबाव से यदि इसमें कोई बदलाव आता है तो डीजल- पेट्रोल की कीमतें और बेकाबू हो सकती हैं।