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वार्ताकार ने यह नहीं बताया कि ये अधिकार क्या थे? वे अभी भी यही कहते हैं कि चीन दक्षिण चीन सागर जल पर संप्रभु क्षेत्र के रूप में दावा नहीं करता
वार्ताकार ने यह नहीं बताया कि ये अधिकार क्या थे? वे अभी भी यही कहते हैं कि चीन दक्षिण चीन सागर जल पर संप्रभु क्षेत्र के रूप में दावा नहीं करता

वार्ताकार ने यह नहीं बताया कि ये अधिकार क्या थे?

www.youngorganiser.com    Jammu (Tawi) 180001 (J&K Union Territory) Updated, 11th Feb. 2021.Thu, 3:11 PM (IST) : ( Article ) Kunwar and ,Siddharth चीनी वार्ताकारों ने बाद में यह दावा करना शुरू कर दिया कि दक्षिण चीन सागर ऐतिहासिक जल है, जिस पर चीन के कुछ विरासती अधिकार थे, लेकिन वार्ताकार ने यह नहीं बताया कि ये अधिकार क्या थे? वे अभी भी यही कहते हैं कि चीन दक्षिण चीन सागर जल पर संप्रभु क्षेत्र के रूप में दावा नहीं करता है। एक बार जब इस आशय का औपचारिक प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र के समक्ष आया, तब यह विवाद टिक नहीं सका। फिर भी दक्षिण चीन सागर में वास्तविक कब्जे, हड़पने और सैन्यीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई, वह अभी भी जारी है। कब्जे की इस ढुलमुल प्रक्रिया के किसी चरण में न तो एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेशन्स (आसियान) और न ही संयुक्त राज्य अमेरिका ने पर्याप्त खतरा महसूस किया। अब जमीन पर बदले हुए तथ्यों को उलटने के लिए बड़े पैमाने पर सैन्य कार्रवाई की जरूरत पड़ेगी, जो व्यावहारिक नहीं है।यहां सबक यह है कि प्रारंभिक चरण में ही तेजी से जवाब देना चाहिए। इससे पहले की रणनीति के तहत नया मानचित्र तैयार हो जाए, फौरन कदम उठाए जाने चाहिए। भारत ने 2017 में डोका ला अभियान के साथ चीनी आक्रामकता के प्रति प्रतिक्रिया के अपने ढर्रे को बदल दिया था। इसमें कोई शक नहीं कि यह चीनी पक्ष के लिए एक आश्चर्य था। चीन की आक्रामक आधिकारिक प्रतिक्रिया और चीनी मीडिया में आई टिप्पणियों की बाढ़ में यही आश्चर्य जाहिर हुआ। वहां चीन की ओर से कुतरने की कार्रवाई की गई थी, जिसने भारत की ओर से अप्रत्याशित और चरित्र से परे असंतोष से भरी प्रतिक्रिया को बुलावा दिया। वह गतिरोध दो महीने से ज्यादा समय तक चला, लेकिन आखिरकार हल निकल ही आया। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा आयोजित ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका (ब्रिक्स) शिखर सम्मेलन हल निकालने की एक अहम वजह बना था। डोका ला के विपरीत पूर्वी लद्दाख में चीनी कार्रवाई कुतरने जैसी छोटी नहीं थी, यहां कार्रवाई बड़ी संख्या में सैनिकों और हथियारों की तैनाती से समर्थित थी। इसका उद्देश्य चीन के फायदे के लिए वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) में ऐसा बड़ा बदलाव करना है, जिसे उलटना भारत के लिए जोखिम भरा और महंगा हो। जीवन की अभूतपूर्व हानि के साथ गलवान में झड़प अप्रत्याशित हो सकती है और संभव है, वह मूल रणनीति का जरूरी हिस्सा न हो। यही वजह है कि डोका ला की एक छोटी सी घटना की तुलना में गलवान पर चीनी पक्ष की प्रतिक्रिया लगभग मौन ही बनी हुई है। चीन की साजिश यह हो सकती है कि एलएसी पर अलग-अलग मान्यता वाले इलाकों को कब्जा लिया जाए और वहां भारतीय मौजूदगी व चौकसी को रोका जाए। उसकी कोशिश थी कि भारत को सरहद पर किसी भी फायदेमंद जगह से महरूम कर दिया जाए। चीन को इस बात की उम्मीद नहीं थी कि भारत सीमा विवाद के प्रबंधन के लिए अपनी प्रतिक्रिया को सीमित नहीं रखेगा, बल्कि भारत में चीन के व्यावसायिक हितों पर हमला करने और अपने दूसरे भागीदारों के साथ खुद को अधिक करीबी से जोड़ने का काम करेगा। भारत ने सैन्य और आर्थिक, दोनों तरह के कदम उठाए। दक्षिण पैंगॉन्ग में ऊंचाइयों पर कब्जा किया और स्थाई रूप से 59 चीनी एप्स पर प्रतिबंध भी लगाया। इससे पहले भारत ने संकेत दिया था कि अगर रिश्ते पटरी पर लौटते हैं, तो प्रतिबंध हटाया भी जा सकता है। अब यह चीन के हाथ में है कि वह तनाव आगे बढ़ाता है या सीमा विवाद के साथ-साथ आपसी रिश्तों के अन्य पहलुओं को भी नुकसान से बचाता है। अब क्या बीजिंग को शंघाई सहयोग संगठन से भारत को बाहर करने की कोशिश करनी चाहिए? एशिया इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक या ब्रिक्स डेवलपमेंट बैंक की भारत की सदस्यता के बारे में क्या करना चाहिए? क्या चीन को ब्रिक्स को भंग करने का नेतृत्व करना चाहिए, जो उसे रूस व अन्य सदस्यों के साथ संघर्ष की स्थिति में ला सकता है? क्या उसे व्यावसायिक रूप से बदला लेना चाहिए, जो उसने अब तक नहीं किया है? दोनों देशों के बीच सैन्य स्तर पर कई दौर की बातचीत हो चुकी है, जिसमें सैनिकों को सीमा से हटाने पर कोई प्रगति दर्ज नहीं की गई है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने हाल ही में यह माना है। तथ्य यह भी है कि दोनों पक्षों ने बातचीत जारी रखने को उपयोगी माना है, लेकिन यह प्रतीत होता है कि यह पहल चीन के पक्ष में नहीं है। भारतीय विदेश मंत्री ने साफ कहा है कि भारत-चीन संबंधों के अन्य पहलुओं को सीमा पर अशांति और शांति से अलग नहीं रखा जा सकता है। जबकि चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने जवाब दिया है कि सीमा की स्थिति को द्विपक्षीय संबंधों के अन्य पहलुओं के आड़े नहीं आने देना चाहिए, हालांकि चीन जानता है, यह मुमकिन नहीं है। चीन ने गलत कदम उठाया है और खुद को इससे कैसे निकालना है, वह नहीं जानता। क्या उसने इतना बड़ा निवाला काट लिया है, जितना वह चबा नहीं सकता? मैंने पहले भी कहा है, अपने क्षेत्रीय दावों को आगे बढ़ाने के लिए चीन काफी सावधानी से जांची-परखी रणनीति का इस्तेमाल करता है। इस दिशा में उसकी हर चाल सैन्य प्रतिक्रिया को आमंत्रित नहीं करती, लेकिन उसकी ऐसी कई छोटी-छोटी हरकतें मिलकर भौतिक बदलाव की वजह बनती हैं। कतरा-कतरा कुतरना एक बड़ा निवाला बन जाता है। हमने अपनी सरहदों पर यही देखा है। दक्षिण चीन सागर में भी चीन ने कामयाबी के साथ इसी रणनीति को आजमाया है। पहले ट्रैक-2 बैठकों में उसके वार्ताकारों ने कहा था कि वे पूरे दक्षिण चीन सागर पर दावा नहीं करते हैं, उनका दावा सिर्फ कुछ द्वीपों और उनके आस-पास के पानी पर है। लेकिन जब उनसे नाइन-डैश लाइन के बारे में पूछा गया, तब उन्होंने कहा कि यह गुओमिंदंग सरकार की विरासत है। यह याद करना चाहिए कि जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चीनी प्रमुख झाउ एनलाई से कहा था कि चीनी मानचित्र भारतीय क्षेत्र के बडे़ हिस्से को चीनी हिस्से के रूप में दिखा रहे हैं, तब एनलाई ने कहा था कि ये पुराने गुओमिंदंग के दौर के मानचित्र हैं, जिन्हें अभी तक संशोधित नहीं किया गया है। ये दोनों दलीलें एक-सी नहीं लगती हैं? चीनी वार्ताकारों ने बाद में यह दावा करना शुरू कर दिया कि दक्षिण चीन सागर ऐतिहासिक जल है, जिस पर चीन के कुछ विरासती अधिकार थे, लेकिन वार्ताकार ने यह नहीं बताया कि ये अधिकार क्या थे?

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