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वकील स्नेहा वे हिंदुस्तानी हैं और इतनी पहचान काफी

www.youngorganiser.com    Jammu (Tawi) 180001 (J&K Union Territory) Updated, 8th May. 2021, Sat. 11:18 AM (IST) : ( Article ) Kapish Sharma दो साल पहले वेल्लोर के तिरूपत्तूर की स्नेहा देश की पहली शख्स बनीं जिनका कोई जाति या धर्म नहीं (No Caste, No Religion) है। पेशे से वकील स्नेहा ने साल 2010 में पहली बार इस सर्टिफिकेट के लिए अर्जी डाली थी, तो उनका तर्क था कि वे हिंदुस्तानी हैं और इतनी पहचान काफी है। हालांकि ये तर्क अधिकारियों की नजर में इतना कमजोर था कि कागज के लिए स्नेहा को लगभग 10 साल तक लड़ाई लड़नी पड़ी। उन्हें बार-बार ये लिखकर देना पड़ा कि उनका किसी जाति-धर्म से न होना किसी के लिए खतरा नहीं। उन्हें ये भी लिखित में देना पड़ा कि इसके बाद वे किसी आरक्षण या पद के लिए दावा नहीं करेंगी। तब जाकर उन्हें सर्टिफिकेट मिला। हाल के दिनों में स्नेहा फिर से सोशल मीडिया पर चर्चा में रहीं। कई लोगों ने उनकी तारीफ की, लेकिन इस बारे में किसी ने नहीं बताया कि स्नेहा का परिवार या आस-पड़ोस उन्हें कैसी नजरों से देखता है? देखो, यही है वो औरत, जिसका कोई धर्म नहीं। स्नेहा की तीन प्यारी बेटियां जब शादी की उम्र की होंगी तो लोग अपना बेटा उन्हें ब्याहने से बचेंगे। जिस मां का कोई धर्म नहीं, उसकी बेटियां भला किस काम की! वे सिर झुकाना नहीं जानती होंगी। परंपरा के हवाले से उन्हें भूखा नहीं रखा जा सकेगा। और तो और, वे खुद को पुरुष के बराबर समझेंगी। बगैर मजहब के जीती औरत समाज के लिए खतरनाक होती है। ये बात इतनी तरह से औरतों के दिमाग में घुसा दी गई कि धर्म खून बनकर औरत की नसों-शिराओं में दौड़ने लगा। प्यू रिसर्च सेंटर) ने साल 2015 में एक पड़ताल की थी। वे देखना चाहते थे कि दुनिया की कितनी औरतें मजहब को नहीं मानती हैं। 192 देशों में हुई इस स्टडी के मुताबिक 18 प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले केवल 1.02 प्रतिशत महिलाएं ऐसी मिलीं, जो धर्म को नहीं मानती। वहीं कोई भी ऐसा मुल्क नहीं मिला, जहां धर्म को मानने वालों में औरतों के मुकाबले मर्द ज्यादा हों। औरतों के लिए मजहब छोड़ने का मतलब है, ईश्वर पर सवाल करना। वो ईश्वर, जो आज से हजारों सालों पहले कबीलाई पुरुषों के गिरोह ने रचा था। वो ईश्वर, जो औरत को लकीर पर चलना सिखाता है। वो ईश्वर, जो औरत को आज्ञाकारी बनाता है और बताता है कि कैसे जीना चाहिए। मजहब के साथ चल आया ये ईश्वर ही है, जो नाइंसाफी से लहूलुहान औरत को जिंदा रख पाता है। ये मजहब ही है, जो औरत को पहचान देता है। बच्चों को तकलीफ में देखती औरत सबसे पहले ईश्वर को याद करती है। वही ईश्वर, जिसकी तस्वीर उसके आले में रखी हो।पुरुषों के पास ये बंधन नहीं। वे आजाद हैं क्योंकि ईश्वर और मजहब खुद उनके तिलिस्मी संसार का हिस्सा हैं। मर्द ने मजहब बनाया ताकि औरत खूंटे से बंधी रहे। खुद मर्द के लिए इसकी कोई बंदिश नहीं। वो सवाल कर सकता है। धर्म, जाति को नकार सकना पुरुष के लिए ऐसा ही है, जैसे अपनी बनाई किसी कृति को नकारना। महान लेखक अपनी बनाई रचना के पुर्जे कर देते हैं क्योंकि वो खूबसूरत नहीं। बेहतरीन चित्रकार अपनी पेंटिंग तहखाने में डाल देते हैं, जो उन्हें पसंद नहीं आती। यही रिश्ता पुरुषों का मजहब के साथ है। वे धर्म को नकार सकते हैं, जैसे कोई बेकार रचना। वे सवाल कर सकते हैं क्योंकि सवालों से ही तो खोज होती है। दूसरी तरफ औरत है, जो अपने बालों को लंबा या छोटा रखने का फैसला पति या प्रेमी के मुताबिक लेती है। ऐसी कुंद जहन और डरपोक औरत भला मजहब चुनने या छोड़ने का फैसला कैसे करे! लिहाजा, उसके हिस्से का फैसला मर्द कर चुका। लो जी, तुम मेरी औलाद हो, तो मेरा धर्म, तुम्हारा धर्म। तुमने मुझसे ब्याह रचाया, तो अब मेरा मजहब भी संभालो। वो औरत छुट्टा घूम रही है। खतरा हो सकती है। चलो, इसे बांध-बूंधकर धर्म की राह पर लाएं। ठीक ही है। धार्मिक जगहों पर वास्तुकला निहारने पहुंची औरत सबसे डरावनी होती है। उससे बचकर रहना चाहिए। वो सौंदर्य समझती है। टिप्पणी करती है। और सबसे भयानक बात कि वो सिर नहीं झुकाती। जिस औरत का सिर झुकाए रखने के लिए हजारों सालों पहले प्रपंच किया गया था, उसके राज ये औरत जानती है। जिस रोज इसकी मुलाकात अपनी साथिनों से होगी, वो सारे राज खोल देगी। ये जो अखबार स्नेहा के गुणगान में बंदनवार सजाते दिख रहे हैं, वे भी इस बात से डरते हैं। तभी तो किसी ने उसके आसपास को नहीं टटोला। नहीं पूछा उसकी पुरानी साथिनों से, कि वे बे-मजहब हो चुकी अपनी इस साथिन की कामयाबी को कैसे देखती हैं! एक प्राचीन जगह थी मेसोपोटामिया, जिसे हम आज कुवैत और ईराक के नाम से जानते हैं। इतिहासकारों के मुताबिक सबसे पहले मेसोपोटामिया में ही भाषा के जरिए मजहब की बात हुई थी। आज यहां की औरतों के हाल दुनिया जानती है। शायद स्नेहा की खबर विदेशी भाषा में उन तक भी पहुंचे। तब अखबार की वो कतरन शायद उन्हें भी आजाद कर सकेगी। आज से करीब साढ़े 12 हजार साल पहले की बात है, जब इंसान ने पहली बार ईश्वर के बारे में सोचना शुरू किया। तय किया गया कि ईश्वर कोई ताकत है, जो धरती को चलाता है। फल-फूल, मांस और स्वादिष्ट पेय जुटाता है। लोगों ने बदले में ईश्वर को कुछ देना चाहा। तस्वीरें उकेरी गईं। ईश्वर की तस्वीरें। ये अपने तेज से आंखों को कौंधाते और जादूगरी से दिमाग को सुन्न करते देवता नहीं थे, बल्कि थी औरत। मजबूत मांसपेशियों और इरादों वाली औरत, जो शेर के शिकार में सबसे आगे खड़ी होती थी। लेकिन, केवल औरतों की बहादुरी ही उन्हें ईश्वर नहीं बनाती थी, बल्कि उनका जन्म दे सकना भी एक वजह थी। पुरुष हैरान था कि जो औरत शिकार करने और गोश्त पकाने का काम उसके साथ करती है, जो उससे प्रेम करती है, वही औरत सृष्टि भी कर पाती है। तो ईश्वर अगर है तो उसके नैन-नक्श औरत जैसे ही होंगे। इस तरह से तैयार हुआ धरती का पहला ईश्वर। फेमिनिस्ट आर्कियोलॉजी पर सबसे पहले बात कर चुकी मारिया गिम्बुतस (Marija Gimbutas) ने उस दौर के अवशेषों में मिले चित्रों के आधार पर ये बात बताई।जैसा कि होना था, मारिया का ये खुलासा भारी पत्थर में बांध समंदर में फेंक दिया गया। अब हम ये जानते हैं कि औरत धरती के सबसे पहले पुरुष आदम की पसली से बनी और उसका काम है पुरुष के लिए मनपसंद खाना पकाना, उसका मन बहलाना और उसकी संतानों को लाना।औरत अपनी ताकत भूली रहे, इसके लिए तमाम जतन हुए। यहां तक कि साढ़े पांच हजार साल पहले भाषा तक का आविष्कार हो गया। फिर तैयार हुए धर्म। एक धर्म से 510 मिलियन स्क्वायर किलोमीटर में फैली आधी आबादी को साधना मुश्किल था, लिहाजा जमीन के अलग-अलग रक्बे ने अपनी औरतों के लिए अलग धर्म गढ़ा। जी हां, औरतों के लिए। औरत धर्मभीरू बन गई। वो वही करती, जो धर्म कहता। वही धर्म, जिसकी खोज पुरुषों ने की। अलग-अलग उम्र और जरूरतों वाली औरतों के लिए अलग धर्म और अलग ईश्वर बने। जरूरत जितनी ज्यादा, औरत को उतने ज्यादा ईश्वर दे दो, ताकि वो लोहबान, चंदन के बीच अपनी जरूरतें भूल जाए।

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