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लहु लुहान हुई बंगाल की धरती

www.youngorganiser.com    Jammu (Tawi) 180001 (J&K Union Territory) Updated, 6th May. 2021, Thu. 7:47 AM (IST) : ( Article ) Siddharth यह खेला शुरू हुआ था और आम जनता को प्रभावित करने के हर हथकंडे तथा वोट पाने के हर किस्म के खेल और जोर जुगाड़, लेन – देन , लालच, भय, जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि की हर परंपरा इस दौर में वैसे ही निभाही गई जैसी कि लगभग हर छोटे-बड़े चुनाव में निभाई जाती है । पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अंततरू संपन्न हो गए । बावजूद राजनीतिक उठापटक, एक दूसरे के ऊपर जायज – नाजायज आरोप-प्रत्यारोप के साथ स्वाभाविक रूप से इस पर अब बहुत कुछ कहने – सुनने का न वक्त रहा है और न इसका औचित्य है। मीडिया के माध्यम से भी अपनी हवा बनाने का हर संभव प्रयास हर पार्टी ने किया । स्वाभाविक रूप से सत्तापक्ष ने इसका सबसे अधिक लाभ उठाया । परिणामस्वरूप मीडिया की निष्पक्षता पर भी सवाल उठे । हर बार उठते हैं । समय के साथ यह सारे सवाल भी वैसे ही बैठ जाएंगे जैसे हर बार बैठ जाते हैं । एग्जिट पोल एक बार फिर से रद्दी की टोकरी के लायक ही सिद्ध हुए । एक बात या तो हमारा मीडिया और राजनीतिक दल समझते नहीं हैं या समझ कर भी किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए न समझने का स्वांग रचते हैं कि थोड़ी बहुत रेंडम सेंपलिंग के माध्यम से जनता के मानस को न पढ़ा जा सकता है न जाना जा सकता है। खैर, चुनाव संपन्न हुए और जनता को जो निर्णय देना था उसने दे दिया । अब उसे अस्वीकार करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता इसलिए राजनीतिक चातुर्य इसी में है कि हार कर भी आप उसे मन से स्वीकार न करने के बावजूद भी स्वीकार है की भाषा ही बोलें और ऐसा ही राजनीतिक दल करते रहे हैं इस बार भी किया। बंगाल के अतिरिक्त असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी के चुनाव स्वाभाविक रूप से थोड़ी बहुत उठापटक के साथ चले ,राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया ने भी उधर न अधिक ध्यान दिया न उसका अधिक कवरेज किया। सबका फोकस एकमात्र बंगाल का चुनाव बन कर रहा। इसकी एक खास वजह भी थी और वह वजह थी भाजपा द्वारा अबकी बार 200 पार के नारे के साथ चुनाव की घोषणा से पहले ही तृणमूल कांग्रेस के अनेक दिग्गजों को अपनी पार्टी में शामिल करके यह माहौल बनाया गया कि दस साल शासन कर चुकी ममता एवं तृणमूल कांग्रेस का जहाज अब डूब रहा है और स्वाभाविक रूप से भविष्य की ओर देखने वाले चतुर नेता इस डूबते हुए जहाज से कूद कर उस जहाज में आ रहे हैं जो उन्हें 200 पार के सपने के साथ सत्ता में पुनरू स्थापित करने का आश्वासन दे रहा था और यह जहाज था भारतीय जनता पार्टी का जहाज। दलबदल का यह खेला ना कोई नई बात थी, न ऐसा पहली बार हो रहा था और न ही अंतिम बार हुआ है । भारतीय चुनावों में ऐसा पहले भी होता रहा है और आगे भी होता रहेगा और अकेले भारतीय जनता पार्टी ने ही ऐसा किया हो ऐसा भी नहीं है । अपने समय में कॉन्ग्रेस, जनता पार्टी सहित हर दल ने ऐसा किया है इस पर भी बहुत अधिक आपत्ति की बात नहीं है क्योंकि यह राजनीति है और राजनीति में सब जायज बन जाता है बशर्ते की जीत आपकी झोली में आए। चुनावों के शुरुआती दौर में बंगाल के बाहर के लोग जब टीवी चैनल्स देखते थे तो उन्हें लगता था कि इस बार बंगाल से ममता का सूपड़ा साफ होने वाला है एवं पहली बार वहां पर भारतीय जनता पार्टी सत्तारूढ़ होने जा रही है लेकिन राजनीतिक विश्लेषक जानते थे कि ऐसा होना असंभव न सही मगर बेहद मुश्किल काम था क्योंकि भारतीय जनता पार्टी वहां एक ऐसा दल था जिसका पूरे राज्य में न एक मजबूत संगठन था और न ही आधार । दूसरी पार्टी से आए हुए नेताओं के बल पर जनता पार्टी के शीर्षस्थ नेता यह सब करने का ख्वाब देख रहे थे और उधर भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए विपक्षी दल चाहे, अनचाहे सीधे – सीधे या परोक्ष रूप में तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी को मजबूत देखना चाहते थे । भारतीय जनता पार्टी ने वहां हिंदुओं के एकीकरण के लिए अल्पसंख्यक एवं बांग्लादेश से विस्थापित बंगालियों का भय दिखाने का दांव चला। इसी दांव से उसने दिल्ली फतह की थी और देश के उन राज्यों में भी जीत दर्ज की थी जो कभी उसके रहे ही नहीं थे मगर इसके प्रत्युत्तर में भाजपा विरोधी हिंदू , अल्पसंख्यक, माकपा के समर्थक, विस्थापित व शरणार्थी बांग्लादेशी बंगाली नागरिक एवं गरीबी की रेखा के नीचे का तबका एक हो गया सारे समीकरण फेल हो गए और नमो व शाह का खेला चल नहीं पाया जबकि ममता का श्खेला होबेश् जनता के दिल तक पहुंच गया और ममता तीसरी बार खुद हार कर भी मुख्यमंत्री बन गई । हालांकि नंदीग्राम से ममता की हार तृणमूल कांग्रेस के लिए एक धोबी पछाड़ से कम नहीं है । भले ही उनकी हार पर तृणमूल कांग्रेस प्रश्न उठा रही है पुनर्मतगणना की मांग ठुकराए जाने के बाद न्यायालय में जाने की बातें की जा रही हैं । यह उनका अधिकार है अब न्यायालय क्या निर्णय देता है, कब तक देता है, यह तो भविष्य के गर्भ में है फिलहाल तो नंदीग्राम के विधायक शुभेंदु अधिकारी ही बन चुके हैं। इन चुनावों में जो सबसे खराब बात उभर कर आई है वह है बरसों बाद विधानसभा चुनावों में वहां जबर्दस्त हिंसा हुई । गोलियां चली, बम फेंके गए, मारपीट हुई चरित्र हनन हुआ। ध्यान कीजिए पिछले दो चुनावों से तो बिहार एवं उत्तर प्रदेश में भी ऐसे हालात नहीं बने थे जो ऐसे हालातों के लिए बदनाम माने जाते हैं । खैर चुनाव आयोग पर तृणमूल के द्वारा उठाए जाने वाली गंभीर उंगलियों के बावजूद चुनाव संपन्न हुए परिणाम भी घोषित हुए लेकिन उसके बाद वहां पर हिंसा का जो तांडव देखने में आया वह दिल दहला देने वाला है । भाजपा का आरोप है कि टीएमसी के कार्यकर्ता बदले की भावना से उसके कार्यकर्ताओं को भयाक्रांत करने के लिए हत्या कर रहे हैं, उनके घर फूंक रहे हैं महिलाओं से बलात्कार कर रहे हैं, पार्टी के दफ्तरों को जला रहे हैं। इन कृत्यों की वीडियो टीवी चैनल पर भी देखने को मिल रही है दोनों दल एक दूसरे को इस हिंसा के लिए उत्तरदायी ठहरा कर अपना दामन साफ सुथरा बताने की कोशिश कर रहे हैं। अब यह कौन सा दल यह कर रहा है, क्यों कर रहा है, इसका कयास भी लगाया जा रहा है । राजनीतिक रूप से यह सब बातें चलती ही रहेंगी । मगर यहां पर जो महा प्रश्न खड़ा होता है वह यह है कि क्या चुनाव के बाद भी इस प्रकार की हिंसा का होना स्वतरू स्फूर्त हो सकता है ? या फिर कोई इसे प्रायोजित कर रहा है ? यदि कर रहा है उसका प्रयोजन क्या है ? वह क्या हासिल करना चाहता है ? राजनीतिक दलों के तर्क वितर्क हमेशा एक संभ्रम ही पैदा करते हैं उससे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना शायद ही उचित हो। अब हिंसा कोई भी कराए पर उसकी मार तो उस पर ही पड़ती है जिसके घर का कोई सदस्य मारा जाता है, जिसका घर जल जाता है, जो दहशत में जीने को मजबूर होता है, जिसके घर की स्त्रियों का अपमान होता है । ऐसे में इसे रोकने का उत्तरदायित्व किसका है यह भी बहुत स्पष्ट है । जिसका यह उत्तरदायित्व है उसने इस हिंसा को रोकने के लिए क्या किया ? खैर न्याय के लिए जांच कमेटियां बनेंगी, आयोग बन सकते हैं, लंबी प्रक्रिया चल सकती है लेकिन फिलहाल जिस बात की सबसे ज्यादा जरूरत है वह है इस हिंसा को किसी भी कीमत पर तुरंत रोका जाए। उसने पहले से क्या तैयारी की थी ? ऐसी आशंकाएं हवा में पहले से ही थी कि बंगाल में चुनावों के बाद प्रतिशोधी हिंसा हो सकती है, तब वहां की कार्यवाहक सरकार, राज्यपाल ,प्रशासन, स्थानीय निकाय, स्थानीय पुलिस, वहां पर तैनात केंद्रीय बल, प्रशासनिक अधिकारी तथा उनको निर्देश देने वाले नीति नियामक एवं राजनीति आका क्या इस सब के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराएजाने चाहिएं ?

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