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भय, भूख और बदहाली के खिलाफ इंसानियत की जंग में निर्णायक मुकाम

www.youngorganiser.com    Jammu (Tawi) 180001 (J&K Union Territory) Updated, 7th Feb. 2021.Sat,7:26 PM (IST) : ( Article ) Sampada Kerni ,Siddharth & Kapish Sharma,

प्रक्रिया में और बढ़ोतरी की आशंकाएं तो पैदा हुई ही हैं, एक नया मुहावरा भी आकार ग्रहण कर रहा है। वह है, ‘आर्थिक राष्ट्रवाद’।  दुनिया के तमाम देश अपने लोगों को रोजगार देने के लिए अपने ही देश में बने उत्पादों पर जोर देने लगे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी ‘वोकल फॉर लोकल’ की वकालत करते दीख रहे हैं। हालांकि, इससे कब और कितना सुधार आएगा, इसका सटीक आकलन फिलहाल असंभव है।कोई अचरज नहीं कि धरती के तमाम हिस्सों में इस वक्त तरह-तरह के आंदोलन उठ खडे़ हुए हैं। खुद भारत की राजधानी के दर पर किसानों ने डेरा डाल रखा है। दिल्ली में सर्दी का सितम शबाब पर है। वर्ष 1961 के बाद यह पहला ऐसा साल है, जब शीत लहर आठ दिनों से अधिक वक्त तक कहर बरपाती रही है। नए साल के पहले दिन ही पारा एक डिग्री तक आ गिरा था, पर सर्दी का यह सितम भी किसानों के जोश को ठंडा नहीं कर पाया। आजाद भारत के इतिहास का यह अनोखा आंदोलन है। असंतोष सिर्फ हमारे देश में मुखरित हो रहा हो, ऐसा नहीं है। पड़ोसी पाकिस्तान और नेपाल में भी अन्य वजहों से माहौल गरम है। हमारी सीमाओं पर अशांति का कुचक्र रच रहे चीन के प्रभुत्व वाले हांगकांग में अंगारों का सिलसिला जारी है। यह असंतोष एशिया और अफ्रीका के देशों की अमानत नहीं रह बचा है। कुछ माह पहले अमेरिका में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’के नाम से मुखरित हुई बेचैनी ने हिंसा की शक्ल अख्तियार कर ली थी। यूरोप के धनी-मानी देश जर्मनी के सबसे बड़े शहर बर्लिन को भी सैकड़ों ट्रैक्टरों पर आए किसानों ने 2020 के शुरुआती दिनों में घेर लिया था। कोरोना की वजह से वे वापस लौट गए, पर उनका प्रतिरोध समाप्त नहीं हुआ है।यही वह मुकाम है, जो डराता है। इंसानी इतिहास में तमाम ऐसी मिसालें हैं, जो चेताती हैं कि ऐसे में सत्तानायक फौरी उपायों पर जोर देने लग जाते हैं। इनके दूरगामी परिणाम कभी भी अच्छे नहीं होते। इस वक्त भी ऐसा हो रहा है। दुनिया के 91 देशों ने इस दौरान मुख्यधारा अथवा सोशल मीडिया पर तरह-तरह की बंदिशें लागू कीं। सितंबर, 2020 में ‘फ्रीडम हाउस’का एक सर्वे प्रकाशित हुआ था, जिसमें राजसत्ता द्वारा मानवाधिकारों के हनन और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कुठाराघात की दारुण स्थिति दर्शाई गई  थी। अगर इस दशक में यह सिलसिला जोर पकड़ता है, तो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के तमाम आदर्शवादी मानक आपको जमींदोज होते नजर आएंगे। जम्हूरियत के लिए यह स्थिति घातक साबित हो सकती है।आशंका पगे इन आंकड़ों के अलावा एक और तथ्य है, जिस पर ध्यान देना जरूरी है। इंसानी सभ्यता ने हमेशा संकट के अंधियारे दिनों में नए उजालों की खोज की है। इसी आशा के साथ मैं इस दशक का स्वागत करना चाहूंगा। उम्मीद है, हम अपनी लड़खड़ाहटों पर काबू पाकर आगे बढ़ने में कामयाब होंगे।क्या आपको इस सदी की शुरुआत के लम्हे याद आते हैं? 21वीं शताब्दी को लेकर हर तरफ जोशीली नारेबाजी का माहौल था। ऐसा लगता था, जैसे यह सदी भय, भूख और बदहाली के खिलाफ इंसानियत की जंग में निर्णायक मुकाम साबित होगी। बीस बरस बाद इन सपनों की जगह जहर बुझी आशंकाओं ने ले ली है। ‘ग्लोबलाइजेशन’ अब ‘स्लोबलाइजेशन’ में बदल चुका है और जिस जम्हूरियत के कंधों पर सवार होकर हम इतनी खुशनुमा उम्मीदें पाल बैठे थे, उसका अपना अस्तित्व लड़खड़ाता दिख रहा है। यह दशक लोकतंत्र और पूंजीवाद के लिए निर्णायक साबित होने जा रहा है।वैसे भी, अगर 1900 से 2020 तक के वक्त को हम बीस-बीस साल के कालखंड में विभाजित करके देखें, तो पाएंगे कि हर दूसरा दशक स्थापित मूल्यों का चेहरा-मोहरा बदलता जाता है। बहुत दूर जाए बिना मैं आपको जनवरी, 2001 में ले चलता हूं। दूसरे महायुद्ध के बाद रूस और अमेरिका में जारी शीतयुद्ध के खात्मे के साथ शुरू हुआ पूंजीवाद का सफर गति पकड़ चुका था। इसके साथ एशियाई और अफ्रीकी देशों में गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम जोर-शोर के साथ जारी थे। इंसानियत के इतिहास में कभी इतनी बड़ी संख्या में लोग गरीबी की रेखा से ऊपर नहीं आए थे। हर तरफ मूलभूत सुविधाएं बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा था। इसका सारा श्रेय भूमंडलीकरण और लोकतंत्र के खाते में जाता था, पर  2001 में दो ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने सब कुछ उलट-पुलट कर दिया। हाल कितना बेहाल है, इसका अंदाजा भारत और बांग्लादेश के वस्त्र उद्योग की दुर्दशा से लगाने का कष्ट करें। 2019 की शुरुआत में समूची दुनिया में यह उद्योग 2.5 ट्रिलियन डॉलर का था। अकेले एशिया में इससे चार करोड़, तीस लाख लोग रोजगार पाते थे। यह उद्योग सही अर्थों में बहुराष्ट्रीय था। किसी देश में अच्छा कपड़ा बनता, तो कहीं बटन, कहीं धागे, तो कहीं वस्त्र सिले जाते। भारत और बांग्लादेश इस मामले में अग्रणी थे। कोरोना की वजह से जब ‘सप्लाई लाइन’पूरी तरह बाधित हो गई, तब चीन के बटन या धागे बांग्लादेश नहीं पहुंच सकते थे और बांग्लादेश में बने वस्त्र किसी अन्य देश में नहीं पहुंचाए जा सकते थे। नतीजतन, अकेले बांग्लादेश के 3.2 बिलियन डॉलर के निर्यात अनुबंध निरस्त हो गए।

जाहिर है, इससे बड़ी संख्या में लोग अपने जमे-जमाए रोजगार से हाथ धो बैठे। यही हाल अन्य उद्योगों का हुआ, जिसका खामियाजा मजदूर और ब्लू कॉलर पेशेवरों को समान रूप से भुगतना पड़ा। जो नौकरी में रह बचे, उन्हें भी वेतन और भत्तों में कटौती का सामना करना पड़ा। बड़ी संख्या में लोग दर-बदर हुए और पिछले तीस सालों में जितने लोग गरीबी की रेखा से ऊपर आए थे, उससे कहीं ज्यादा पुन: उसी अभिशप्त स्थिति में लौटने को बाध्य हो गए। ये पीड़ादायक हालात कब सामान्य होंगे, इसकी गारंटी किसी के पास नहीं है। चीन ‘विश्व व्यापार संगठन’ का सदस्य बना। यह ड्रैगन की मुक्त बाजार की दुनिया में औपचारिक आमद थी, लेकिन इस वर्ष की 11 सितंबर को जो हुआ, वह अप्रत्याशित था। ओसामा बिन लादेन के मुजाहिदों ने वल्र्ड ट्रेड सेंटर की गगनचुंबी इमारतों को धूल में मिला दिया। इन दो घटनाओं ने विश्व-व्यवस्था में निर्णायक परिवर्तन की शुरुआत की। एक तरफ अमेरिका लंबे और अनुत्पादक युद्धों में फंस गया, तो दूसरी तरफ चीन चुपचाप अपनी ताकत बढ़ाता चला गया। इसी बीच वर्ष 2008 में लेहमन ब्रदर्स के चौंकाने वाले पतन ने दुनिया को ‘स्लोबलाइजेशन’ की ओर धकेलना शुरू किया। कोरोना ने इस घातक ज्वाला को दावानल का रूप प्रदान कर दिया है। बेरोजगारी और बदहाली इसीलिए 2021 के दरवाजे पर खड़ी होकर हमारा स्वागत कर रही हैं।

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