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बाहर या भीतर, कहीं से भी अगर कोई हमारी सरकार की खामियां गिनाता है , तो उसे शत्रु मानते हुए उसपर चढ़ दौड़ने की प्रवृत्ति से बाज आया जाए

 

www.youngorganiser.com    Jammu (Tawi) 180001 (J&K Union Territory) Updated, 5th MAR. 2021, FRI. 11:03 AM (IST) : ( Article ) Sampada Kerni ,Siddharth & Kapish Sharma :-   देश के विशाल आकार और विविधता, विकासशील तथा संप्रभुता संपन्न धर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा, तथा एक भूतपूर्व औपनिवेशिक राष्ट्र के रूप में इसके इतिहास के परिणामस्वरूप भारत में मानवाधिकारों की परिस्थिति एक प्रकार से जटिल हो गई है। भारत का संविधान मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसमें धर्म की स्वतंत्रता भी अंतर्भूक्त है। संविधान की धाराओं में बोलने की आजादी के साथ-साथ कार्यपालिका और न्यायपालिका का विभाजन तथा देश के अन्दर एवं बाहर आने-जाने की भी आजादी दी गई है। पहली जरूरत इस बात की है कि बाहर या भीतर, कहीं से भी अगर कोई हमारी सरकार की खामियां गिनाता है तो उसे शत्रु मानते हुए उसपर चढ़ दौड़ने की प्रवृत्ति से बाज आया जाए। बेहतर हो कि सरकार हर संजीदा आलोचना का सम्मान करे और उसका संबंध अगर लोकतांत्रिक मूल्यों से हो तो उसे और ज्यादा गंभीरता से ले। हम अपने सिस्टम को अधिक से अधिक न्यायपूर्ण बनाए रखें तो ऐसी रिपोर्टों का कोई मतलब ही नहीं बचेगा। रिपोर्ट के कुछ बिंदु पूरी तरह सब्जेक्टिव लगते हैं। जैसे, देश में कोरोना का प्रकोप शुरू होते ही घोषित लॉकडाउन को जरूरत से ज्यादा सख्त बताना। ऐसी महामारी के बीच किसी भी जिम्मेदार सरकार की सबसे बड़ी चिंता लोगों का आपसी संपर्क कम से कम रखने की ही होगी। अचानक लागू लॉकडाउन के चलते प्रवासी मजदूरों और अन्य लोगों को हुई तकलीफें हर संवेदनशील मन को परेशान करती रही हैं, लेकिन उस आधार पर बाहर से किसी का यह कहना उचित नहीं लगता कि देश में स्वतंत्रता कम है। दूसरी तरफ इसी रिपोर्ट में कुछ ऐसी ऑब्जेक्टिव बातें भी हैं जिन्हें नजरअंदाज करना हमारे लिए अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा। जैसे पुलिस द्वारा दर्ज किए गए राजद्रोह के मामलों में तेज बढ़ोतरी, पत्रकारों के खिलाफ दमनात्मक कार्रवाई में इजाफा, कोरोना जेहाद की बात कह कर एक धार्मिक समुदाय को महामारी का दोषी बताना आदि। हमें समझना होगा कि इस रिपोर्ट पर या रिपोर्ट लाने वाली संस्था के इरादों पर संदेह करके हम ऐसे बेचैन कर देने वाले सवालों से आंखें नहीं मूंद सकते।  स्वयं अमेरिका की नजरों में अपनी सीमाओं से बाहर लोकतंत्र और मानवाधिकारों का क्या स्थान रहा है और दुनिया में कहां-कहां इसने तानाशाहों और रंगभेद जैसी मनुष्य विरोधी मान्यताओं को संरक्षण दिया है, यह कोई बताने की बात नहीं है। जहां तक फ्रीडम हाउस और उसकी इस रिपोर्ट का सवाल है तो इसे लेकर भी सोशल मीडिया पर जारी बहस में तीखा विभाजन दिखता है। कुछ लोग इसे स्वयंसिद्ध प्रमाण की तरह उद्धृत कर रहे हैं तो कुछ सीधे खारिज कर रहे हैं। लेकिन अहम बात यह नहीं है कि इस रिपोर्ट को हम कितना वजन देते हैं, बल्कि यह है कि इस रिपोर्ट में दर्ज ऐतराजों की कितनी तपिश हम खुद अपनी चमड़ी पर महसूस करते हैं।  दुनिया भर में लोकतंत्र की स्थिति पर नजर रखने वाले एक अमेरिकी एनजीओ ‘फ्रीडम हाउस’ की ताजा रिपोर्ट वैसे तो वैश्विक स्तर पर इसकी मौजूदा दशा को चिंताजनक बताती है, लेकिन अभी इसकी चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि इस बार भारत के स्टेटस को इसने फ्री (स्वतंत्र) से घटाकर पार्टली फ्री (आंशिक रूप से स्वतंत्र) कर दिया है। हर भारतीय के लिए यह बात तकलीफदेह होगी कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में प्रतिष्ठित और अपने लोकतांत्रिक मूल्यों, परंपराओं के लिए हर जगह समादृत हमारे देश को आंशिक रूप से ही स्वतंत्र माना जाए। सीधे शब्दों में इसका मतलब यह हुआ कि इस देश के नागरिक पूरी तरह स्वतंत्र नहीं हैं।

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