www.youngorganiser.com Jammu (Tawi) 180001 (J&K Union Territory) Updated, 23th May. 2021, Sun. 11:10 AM (IST) : टीम डिजिटल: Pt. Hanuman Dogra : पेड़-पौधों या वनस्पतिलोक का अर्थ, किसी क्षेत्र का वनस्पति जीवन या भूमि पर मौजूद पेड़-पौधे और इसका संबंध किसी विशिष्ट जाति, जीवन के ऱूप, रचना, स्थानिक प्रसार या अन्य वानस्पतिक या भौगोलिक गुणों से नहीं है। यह शब्द फ्लोरा शब्द से कहीं अधिक बड़ा है जो विशेष रूप से जाति की संरचना से संबधित होता है। शायद सबसे करीबी पर्याय वनस्पति समाज है, लेकिन पेड़-पौधे शब्द स्थानिक पैमानों की विस्तृत श्रेणी से संबध रख सकता है, जिनमें समस्त विश्व की वनस्पति-संपदा समाविष्ट है। प्राचीन लाल लकड़ी के वन, तटीय सदाबहार वन, दलदल में जमने वाली काई, रेगिस्तानी मिट्टी की पर्तें, सड़क के किनारे उगने वाली घास, गेहूं के खेत, बाग-बगीचे ये सभीपेड़-पौधों की परिभाषा में शामिल हैं। भारत में प्राचीन काल की बात है। वानिकी से जुड़े विषयों जैसे पेड़-पौधों और वनस्पतियों के प्रबंध पर एक कक्षा चल रही थी। कक्षा में लंबा चौड़ा विश्लेषण हुआ कहां कौन सा पौधा लगाया जा सकता है कहां कौन सी वनस्पति को नहीं लगाया जा सकता किस मिट्टी में क्या उगाया सकता है क्या नहीं उग सकता किस पौधे को कितना पानी चाहिये किस पौधे को पानी कम चाहिये और किसको ज्यादा चाहिये कौन सा वृक्ष जल्दी उग जाता है कौन सा वृक्ष उगाना कठिन है आदि आदि। इन विषयों पर चर्चा पूरी ही हुई थी कि इतने में एक विद्यार्थी ने पूछा: गुरुजी, आपने हमें अलग अलग प्रकार के क्षेत्र, स्थान, मृदा और जलवायु में अलग अलग प्रकार की प्रजातियों के रोपित करने की उपयुक्तता पर जानकारी दिया। क्या ऐसा कोई रास्ता नहीं है कि हम कोई भी पौधा कहीं भी उगा सकें? हमें जिस प्रजाति को जहां उगाने की इच्छा हो उस प्रजाति के पौधे को वहीं उगा सकें तो बड़ा आनंद आएगा। गुरु श्रेष्ठ ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया है वह कृषि, कृषि-वानिकी, हॉर्टिकल्चर, फॉरेस्ट्री तथा फॉरेस्ट मैनेजमेंट से जुड़े वित्त-प्रबंध के उन मूल सिद्धांतों में गिना जाता है जो आज भी यथावत उपयोगी है। गुरु श्रेष्ठ का उत्तर था सरकार की इच्छाशक्ति, धन खर्च करने का सामर्थ्य और नियति प्रबल हो तो भले ही कैसी जमीन हो, किसी भी प्रजाति के पौधे को किसी भी प्रकार की जमीन में विशेष सुविधा प्रदान कर उगाया जा सकता है। इस सम्पूर्ण विषय को आप वैद्य विद्या वरेण्य सुर पाल मुनि द्वारा लिखित वृक्षायुर्वेद के भूमिनिरूपण प्रकरण के सूत्र में देख सकते हैं ।
निधिदेवमहीपानां प्रभावाच्याति यत्नतः।
असात्म्यभूमिसम्पन्ना अपि सिद्ध्यन्ति पादपाः।।
वृक्षायुर्वेदसे संबंधित मूल सिद्धांतों के सूत्र वैदिक वांग्मय में यत्र-तत्र ऋचाओं में बिखरे हुये मिलते हैं। पौधों के संरक्षण, पुनरुत्पादन, विकास और वन और वनस्पति प्रबंध पर ज्ञान का उत्पादन और उपयोगऋग्वेद और अथर्ववेद काल से प्रारम्भ होकर आज तक अनवरत जारी है।उदाहरण के लिये औषधीय पौधों की बात करें तो सबसे प्राचीन संदर्भ 4500 ईसा पूर्व ऋग्वेद में मिलता है। लगभग 2600 वर्ष ईसा पूर्व सिन्धु-सरस्वती सभ्यता में भी खजूर, अनार, व बरगद कुल के पौधों को रिहायशी क्षेत्रों के पास उगने की परंपरा के प्रमाण मिले हैं। आयुर्वेदिक संहिताओं और ग्रंथों में भी इस विषय पर विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। लेकिन बाग़-बगीचों का सबसे सुन्दर वर्णन रामायण काल में प्राप्त होता है। चाणक्य का अर्थशास्त्र भी इस विषय पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है। आचार्य वराहमिहिर ने जलाशयों को मनोहारी बनाने के लिये सलाह दी है कि वृक्षों की छाया के बिना जलाशय मनोहारी नहीं लगते, अतः जलाशयों की पाल पर बाग-बगीचे रोपित करना चाहिये :
प्रान्तच्छायाविनिर्मुक्ता न मनोज्ञा जलाशयाः।
यस्मादतो जलप्रान्तेष्वारामान्विनिवेशयेत्।।
वराहमिहिर ने यह भी निर्दिष्ट किया है कि अर्जुन, बरगद, आम, पीपल, कमल, जामुन, वेंत, फलदू, ताड़, अशोक, महुआ, तथा मौलसरी आदि लगाना उपयोगी होता है।इस संबंध में राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान (मानद विश्वविद्यालय) के कुलपति प्रोफेसर डॉ. संजीव शर्मा का विचार है कि राजस्थान की घर-घर औषधि योजना वृक्षायुर्वेद का देश में सबसे व्यापक, अनूठा व नवाचारी क्रियान्वयन है। राज्य के लगभग सवा करोड़ परिवारों को तुलसी, कालमेघ, अश्वगंधा और गुडूची के पौधे वन विभाग की पौधशालाओं में उगाकर पांच वर्ष तक वितरित किये जायेंगे।
घर-घर औषधि योजना के लिये तुलसी कालमेघ, अश्वगंधा और गिलोय ही क्यों चयनित किए गये? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर चार अलग-अलग दृष्टिकोण से समझा जा सकता है।
पहला दृष्टिकोण मानव जीवन के लिए औषधीय पौधों के तुलनात्मक महत्व पर आधारित है। इस तुलनात्मक महत्त्व में विशेष रुप से चयनित औषधीय पौधों की मल्टीफंक्शनैलिटी भी शामिल है। मल्टीफंक्शनैलिटी या बहु-क्रियात्मकता से तात्पर्य यह है कि चयनित कीगई चारों प्रजातियां अलग-अलग या एक दूसरे से विभिन्न अनुपातों में मिलकर अधिक से अधिक रोगों के विरुद्ध प्रभावी हो सकती हैं। इस दृष्टिकोण में समकालीन समस्याओं को हल करने में चयनित औषधीय पौधों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
दूसरा दृष्टिकोण औषधीय पौधों के पक्ष में आयुर्वेद की संहिताओं, समकालीन वैज्ञानिक शोध एवं चिकित्सा आधारित प्रमाण की उपलब्धता है। संहिताओं,साइंस,और वैद्यों का प्रैक्टिस-बेस्ड एविडेंस मूलतः ज्ञान की उस त्रिवेणी को जन्म देता है जहां प्रमाण लगभग अकाट्य हो जाते हैं। इन चारों चयनित प्रजातियों के पक्ष में इसी प्रकार के प्रमाण उपलब्ध हैं।
तीसरा दृष्टिकोण जन सामान्य के मध्य स्थानीय ज्ञान या पारंपरिक ज्ञान जिसे एथनोमेडिसिन के रूप में भी जाना जाता है से संबंधित है। इस दृष्टिकोण में औषधीय पौधों को विभिन्न रोगों के विरुद्ध प्रयोग करने के पूर्व लोगों के द्वारा वैद्य की सलाह से औषधि निर्माण की सरलता भी शामिल है।
चौथा दृष्टिकोण चयनित प्रजातियों की जलवायुवीय आवश्यकताओं से संबंधित है जिनके आधार पर यह समझा जा सकता है कि इन प्रजातियों का राजस्थान में उगाया जाना कहां तक संभव है। राज्य की नीतिगत प्राथमिकता पर हालांकि हम प्रारम्भ में स्पष्ट कर चुके हैं परन्तु यहाँ यह बताना उपयोगी है कि चयनित की गयी चारों प्रजातियाँ राजस्थान में सर्वत्र उगायी जा सकती हैं।
इन चारों प्रजातियों से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं? अगर यह चारों प्रजातियां एक साथ घर में उगाई जा रही हैं तो हम इन से क्या लाभ प्राप्त कर सकते हैं?
इस विषय में प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य एवं राजस्थान साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. इन्दु शेखर तत्पुरुष का मानना है कि अश्वगंधा, तुलसी, कालमेघ, गिलोयये चारों पौधे आधुनिक युग में संजीवनी बूंटी से कम महत्व के नहीं हैं। खास बात यह है कि ये घर में बहुत आसानी से लगाये जा सकते हैं। किसी भी तरह का ज्वर, चाहे वह मौसमी बुखार हो या दूषित जल, वायु, भोजन आदि से होने वाला बुखार हो, तुलसी, गिलोय और कालमेघ के नियमित प्रयोग से दूर हो जाता है। आधुनिक शोध अध्ययनों ने भी यह प्रमाणित किया है कि जीवाणु और वायरस संक्रमण की घातकता को कम करने में इन चारों प्रजातियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। साथ ही अश्वगंधा एक ऐसी औषधि है जो अकेली ही हर उम्र के व्यक्ति के लिये बलवर्धक का कार्य करती है। वृद्ध लोगों के लिये तो यह सर्वोत्तम टॉनिक है। यह नाड़ी संस्थान को बल प्रदान करती है। यदि घर-घर में ये चारों पौधे लगाये जाते हैं तो वैद्य की सलाह से प्रत्येक व्यक्ति अपना आयुष स्वास्थ्य किट स्वयं घर में ही तैयार कर सकेगा। इस प्रकार यह योजना केवल पौधरोपण की नहीं अपितु घर घर में एक स्वास्थ्यदायी चिकित्सा-पेटी पहुँचाने की है। अनेक ऐसे रोग हैं जिनकी प्राथमिक चिकित्सा इन चार पौधों द्वारा की जा सकेगी और व्यक्ति को अस्पताल जाने की जरूरत ही नहीं रहेगी। भविष्य में इसे घर-घर में एक स्वास्थ्यदायी चिकित्सा पेटी की भूमिका के रूप में याद रखा जायेगा। ऐसे ही विचार डॉ. सुभाष भट्ट, डॉ. रमेश भूत्या, डॉ. गोविंद ओझा, डॉ. इकबाल पठान, डॉ. हरिओम शर्मा जी, डॉ. रेखा शर्मा, डॉ. अनुराग दुबे, डॉ. दीपक भंडारी, डॉ. अरुण तिवारी, डॉ बी. के. मिश्रा, डॉ. शिव सिंह व डॉ. कृष्ण कुमार द्वारा व्यक्त किये गये हैं।
डॉ. अनुराग दुबे का मानना है कि कि घर-घर औषधि योजना का उद्देश्य औषधियों की प्राप्ति के मामले में परिवारों को आत्मनिर्भर बनाने से कहीं ज्यादा आगे जाकर परिवारों की औषध चेतना को जागृत एवं परिपक्व करना भी है। अगर हम इस लक्ष्य को हासिल कर सके तो औषधियों का उत्पादन तो खेतों में हो ही जायेगा।
वैश्विक महामारी से निपटने के बाद पोस्ट-पैंडेमिक काल में अर्थव्यवस्था को ग्रीन डेवलपमेंट की ओर ले जाना और परिवारके स्तर पर रेजिलिएंस या समस्या में फंसने के बाद उठ खड़े होने की क्षमता बेहतर करना एक बड़ी प्राथमिकता होगी। विश्व भर की सरकारें महामारीसे निपटने के बाद आने वाले समय में अपने आधारभूत ढांचे में भारी परिवर्तनों की घोषणा कर चुकी हैं।इस दिशा में सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय विकास को ले जाने के लिए तमाम कार्य योजनायेंभी दुनिया भर में बन रही हैं और इनमें से कुछ का क्रियान्वयन प्रारंभ हो गया है। घर-घर औषधि योजना को राजस्थान में इस परिप्रेक्ष्य में भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। महामारी काल में अमीर और गरीब दोनों ही प्रकार के परिवारों में जोखिम को बर्दाश्त कर पाने की भिन्न-भिन्न क्षमतायें दिखाई पड़ती हैकिन्तु एक स्तर पर जाकर सभी परिवार जोखिम की भयावहता को भुगतते हुये पायेजा रहे हैं। अतः परिवार के स्तर पर प्रत्येक गांव और प्रत्येक शहर में घर घर को रेसिलियंट बनाने तथा स्वास्थ्य आपदाओं से निपटने में सम्यक रूप से सक्षम बनाने के लिये घर-घर औषधि योजना का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। महामारी के अतिरिक्त भारतीय घरों में गैर-संचारी रोगों के कारण समय पूर्व मृत्यु में होने वाली दरों में बढ़ोतरी दिखाई पड़ रही है। अतः घर-घर औषधि योजना के अंतर्गत प्रदान किए जाने वाले चारों प्रजातियों के पौधे राज्य के परिवारों को गैर-संचारी एवं संचारी रोगों से मुक्त रखने और इन रोगों में कमी लाने में मदद कर सकते हैं। स्वाभाविक है कि इन रोगों में कमी आने पर अस्पतालों सहित स्वास्थ्य से जुड़े आधारभूत ढांचे पर पड़ने वाला दबाव कम होगा।
इसी प्रकार क्लाइमेट चेंज की दशा में राजस्थान उन राज्यों में शामिल है जो सबसे ज्यादा जोखिम का सामना करेंगे। क्लाइमेट चेंज से जुड़े जोखिम अर्थव्यवस्था, समाज और पारिस्थितिकीय तंत्र तीनों पर ही पड़ेंगे। किंतु स्वास्थ्य से जुड़ी समस्यायें अनेक रूपों में सामने आ सकती हैं। अतः क्लाइमेट चेंज के मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव या क्लाइमेट चेंज के कारण जिन बीमारियों में बढ़त देखी जाने की आशंका वैज्ञानिक अध्ययनों में प्रकट की गई है उन रोगों को प्रबंधित करने में तुलसी, कालमेघ, अश्वगंधा और गिलोय का बड़ा योगदान हो सकता है।
सारांश में सन्देश यह है कि वन विभाग में अगले पांच वर्ष तक पौधशालाओं में तुलसी, कालमेघ, अश्वगंधा और गुडूची का वितरण किया जायेगा।इन पौधों को प्राप्त कर लोगों को अपने पारम्परिक ज्ञान का प्रयोग करते हुये सदैव के लिये घर में लगाना चाहिये। इन प्रजातियों को नियमित साल-दर-साल उगाते के लिये वृक्षायुर्वेद की तकनीकों का प्रयोग भी उपयोगी रहेगा। इसके साथ ही इन प्रजातियों के माध्यम से अपना स्वास्थ्य दुरुस्त रखने हेतु समय समय पर अपने वैद्यों से जानकारी भी प्राप्त करते रहना चाहिये। तुलसी, कालमेघ, अश्वगंधा और गुडूची के परम्परागत उपयोग की जानकारी भी पीढ़ियों से उपलब्ध है। स्वयं को स्वस्थ रखने में इस ज्ञान के उपयोग का भी बड़ा योगदान हो सकता है। Pt. Hanuman Dogra ( डॉ ) (यह लेखक के निजी विचार हैं और ‘सार्वभौमिक कल्याण के सिद्धांत’ से प्रेरित हैं।) Hindi News से जुड़े अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करें। हर पल अपडेट रहने के लिए YO APP डाउनलोड करें Or. www.youngorganiser.com। ANDROID लिंक और iOS लिंक।