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क्या 21वीं सदी को एशिया की सदी की तरह पहचाना जाने लगेगा?,

www.youngorganiser.com    Jammu (Tawi) 180001 (J&K Union Territory) Updated, 2nd, Feb. 2021.Tue, 7:10 AM (IST) Sampada Kerni (ARTICLE), प्रतिष्ठित ब्रिटिश थिंक टैंक सेंटर फॉर इकनॉमिक्स एंड बिजनेस रिसर्च (सीईबीआर) द्वारा हाल में जारी 195 देशों के आर्थिक रुझानों के अनुमान वर्ल्ड इकनॉमिक लीग टेबल-2021 (वेल्ट-21) के मुताबिक 2028 आते-आते चीन अमेरिका से ज्यादा अमीर हो जाएगा, जबकि 2019 में ब्रिटेन से आगे आकर 2020 में दोबारा उससे पिछड़ गया भारत 2025 में ब्रिटेन, 2027 में जर्मनी और 2030 में जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की नंबर-3 अर्थव्यवस्था बन जाएगा। इस मामले में पूरी टेबल पढ़कर देखें। अलग-अलग अर्थव्यवस्थाओं का विश्लेषण इसे खयाली पुलाव जैसा नहीं रहने देता। मसलन, 2020 से 2035 तक के आर्थिक बदलावों का अनुमान बताता है कि अगले पंद्रह वर्षों में दुनिया की 25 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से 11 एशियाई होंगी। वेल्ट-21 के मुताबिक पूर्वी एशिया की तीन, दक्षिण-पूर्व एशिया की चार और दक्षिणी तथा पश्चिमी एशिया की दो-दो अर्थव्यवस्थाएं 2030 में इस सूची का हिस्सा होंगी। अगले 10-15 वर्षों में क्या 21वीं सदी को एशिया की सदी की तरह पहचाना जाने लगेगा? जमीनी तौर पर यह बात दूर की कौड़ी लगती है। बड़े एशियाई शहरों के पॉश इलाके जरूर कुछ मायनों में यूरोपीय-अमेरिकी शहरों जैसे लगते हैं। मेट्रो में सफर करते पश्चिमी पर्यटकों को दिल्ली भी अपना सा जान पड़ता है। लेकिन महानगरों से बाहर, बल्कि इनके गरीब इलाकों में जाते ही दुनिया कुछ और लगने लगती है। बहरहाल, उपनिवेशों और उपनिवेश बनाने वाले देशों में फर्क तो लंबे समय तक रहेगा, लेकिन जीडीपी के मोटे पैमाने पर रखकर देखें तो लगता है कि राष्ट्रीय समृद्धि के मामले में एशियाई देश अब न सिर्फ यूरोपीय और अमेरिकी देशों का मुकाबला कर रहे हैं, बल्कि आधुनिक इतिहास में पहली बार डॉलर टर्म जीडीपी में उन्हें स्थायी रूप से पीछे छोड़ने की ओर बढ़ रहे हैं। इनमें चीन का स्थान दुनिया में पहला, भारत का तीसरा, जापान का चौथा, दक्षिण कोरिया का 11वां और इंडोनेशिया का 2030 में 12वें से चढ़कर 2035 में आठवां होगा। सूची में सऊदी अरब को 2030 में 18वें से उठकर 2035 में 17वें, विएतनाम को 2030 में 24वें से 2035 में 19वें, तुर्की को लगातार 20वें, फिलीपींस को 2030 में 25वें से बढ़कर 2035 में 22वें, थाईलैंड को 22वें से 21वें और पड़ोसी बांग्लादेश को मौजूदा 41वें से 2025 में 34वें, 2030 में 28वें और 2035 में वर्ल्ड इकॉनमी के 25वें स्थान पर आता दिखाया गया है। एशियाई भूगोल के लिए ये बदलाव किसी चमत्कार से कम नहीं हैं क्योंकि इन सभी देशों का प्रबंधन कुछ दशक पहले तक पूर्णतः या आंशिक रूप से किसी और देश के हाथ में था। सीईबीआर के विश्लेषकों का कहना है कि अर्थव्यवस्थाओं का यह रुझान यों भी ऐसा ही था, पर महामारी ने पश्चिमी देशों के बरक्स एशियाई मुल्कों के आगे आने की रफ्तार बढ़ा दी।यूरोप और अमेरिका बीमारी के इंतजाम में बहुत पीछे रहे और उनकी अर्थव्यवस्थाएं लंबे समय तक इसके दुष्प्रभाव से जूझती रहेंगी। एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में भारत पर महामारी की मार ज्यादा जोर से पड़ी। रिपोर्ट यह दर्ज करने में कोताही नहीं बरतती कि इंडियन इकॉनमी के लुढ़कने का रुझान महामारी के तीन साल पहले से शुरू हो गया था। नोटबंदी और जीएसटी के असर से इसकी रफ्तार साल के शुरू में ही अपने श्रेष्ठ दौर की आधी रह गई थी। लेकिन रिपोर्ट का मानना है कि इस दौरान हुए अर्थव्यवस्था के डिजिटलीकरण, सीधी टैक्स प्रणाली और इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधारों का प्रभाव आगे अच्छा देखने को मिलेगा, और इसी आधार पर 2025 के बाद इसे तेजी पकड़ते दिखाया गया है। जाहिर है, एशियाई अर्थव्यवस्थाओं का पश्चिम के बरक्स आगे बढ़ना कोई ऐसी परिघटना नहीं है जिसे दुनिया स्पोर्ट्समैन स्पिरिट के साथ ग्रहण करने जा रही है।ज्ञात इतिहास की हमारी समझ पश्चिम को अगुआ और पूरब को पिछलगुआ मानने की रही है। हमारी ज्यादातर पहचान पश्चिमी विद्वानों की खोजी हुई है। हमारे बहुतेरे ग्रंथ उन्हीं की मेहरबानी से दुनिया की नजर में हैं। और तो और, पूरब की अलग मेधा का मिथक भी काफी कुछ पश्चिम का ही खड़ा किया हुआ है। जब भी हम उनकी श्रेष्ठता रेखा को पार करने की कोशिश करते हैं, हमें हमारी औकात बता दी जाती है। 1980 और 90 के दशकों में जापान नेइलेक्ट्रॉनिक्स और छोटी गाड़ियों में अमेरिका-यूरोप से आगे जाने का जतन किया तो उसकी छवि नक्कालों जैसी बना दी गई। फिर मैक्रो इकनॉमिक्स की कुछ गलतियों से एक बार वह रास्ता चूका तो आज तक ठहराव से गुजर रहा है। अभी उससे कहीं भयानक बातें हम चीन के खिलाफ सुन रहे हैं, हालांकि भारत को ‘साइबर कुली’ के खाते में डालकर पश्चिमी देश इसे अपने लिए खतरा मानने की चिंता से मुक्त हैं।यहां दूसरा जोखिम आपसी लड़ाइयों का है। पश्चिमी एशिया की तेल-समृद्धि से निपट लेने का इंतजाम इसी युक्ति से हमेशा के लिए किया जा चुका है। इसकी शुरुआत अरब-इजरायल युद्ध, ईरान-इराक युद्ध और फिर इराक पर अमेरिकी हमले से हुई थी, जिसका विस्तार अभी गृहयुद्धों के रूप में गली-गली नजर आ रहा है। पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया की तेज तरक्की की एक बड़ी वजह यह है कि विएतनाम युद्ध के बाद से यहां कोई बड़ी लड़ाई नहीं हुई। इस खतरे को लेकर सबसे ज्यादा सतर्क चीन को रहना चाहिए, जिसमें अपनी तेज प्रगति के साथ राष्ट्रीय दबंगई का रुझान भी देखा जा रहा है। दक्षिणी चीन सागर या भारत-तिब्बत सीमा पर कोई सामान्य सैनिक झड़प भी देखते-देखते बड़े युद्ध का रूप ले सकती है और न सिर्फ चीन बल्कि पूरे एशिया की बढ़त को दशकों पीछे धकेल सकती है। अफसोस कि ऐसे टकरावों को टालने का डिप्लोमैटिक मेकेनिज्म इस इलाके में नदारद है। इन भटकावों से बच सके तो एशिया की मौजूदा अग्रगति का आधार तीन दशक पहले जापान के फर्राटे से कहीं ज्यादा व्यापक है। साइंस-टेक्नॉलजी में आज के एशियाइयों का स्तर पश्चिम से ज्यादा पीछे नहीं है। जैसे-जैसे एशिया की ओर से चुनौती बढ़ेगी, यूरोप-अमेरिका की ओर से इस तरफ कटिंग-एज टेक्नॉलजी का आना कम होता जाएगा। राफेल विमान के टेक्नॉलजी ट्रांसफर से फ्रांस का मुकरना हमने हाल में देखा है। 2035 तक का समय तीखे टकरावों, कूटनीतिक चालबाजियों और उलझाने वाली रणनीतियों की बानगी देने वाला है। यह लक्ष्मणरेखा हम पार कर ले गए तो 2050 आते-आते शायद सचमुच जान सकें कि एक समतल दुनिया होती कैसी है।

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