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आस्था का केंद्र रायपुर का महामाया मंदिर

रायपुर। हैहयवंशी राजाओं ने छत्तीसगढ़ में छत्तीस किले बनवाए और हर किले की शुरुआत में माँ महामाया के मंदिर बनवाए। माँ के इन छत्तीसगढ़ों में एक गढ़ है रायपुर का महामाया मंदिर, जहां महालक्ष्मी के रूप में दर्शन देती हैं माँ महामाया और सम्लेश्वरी देवी। माँ का दरबार सदियों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। तांत्रिक पद्धति से बने इस मंदिर में देश ही नहीं विदेशों से भी भक्त आते हैं। माता का यह मंदिर बेहद चमत्कारिक माना जाता है, यहां सच्चे मन से मांगी गई मन्नत तत्काल पूरी होती है।

प्रत्यक्ष रूप में विराजमान हैं तीन देवियां
माँ के मंदिर के गर्भगृह की निर्माण शैली तांत्रिक विधि की है। माँ के मंदिर का गुंबज श्री यंत्र की आकृति का बनाया गया है। मंदिर के पुजारी पंडित मनोज शुक्ला बताते हैं कि माँ महामाया देवी, माँ महाकाली के स्वरूप में यहां विराजमान हैं। सामने माँ सरस्वती के स्वरूप में माँ सम्लेश्वरी देवी मंदिर विद्यमान है। इस तरह यहां महाकाली, माँ सरस्वती, माँ महालक्ष्मी तीनों माताजी प्रत्यक्ष प्रमाण रूप में यहां विराजमान हैं।
जब स्वयं श्री महामाया देवी मंदिर में प्रकट हुईं
इतिहास इस बात से सहमत है कि वर्तमान शहर की घनी आबादी के मध्य स्थित श्री महामाया देवी का यह मंदिर बहुत ही प्राचीन मंदिर है। जनश्रुति के अनुसार इस मंदिर की प्रतिष्ठा हैहयवंशी राजा मोरध्वज के हाथों किया गया था। बाद में भोंसला राजवंशीय सामन्तों व अंग्रेजी सल्तनत द्वारा भी इसकी देखरेख की गई है। किवदन्ती है कि एक बार राजा मोरध्वज अपनी रानी कुमुद्धती देवी (सहशीला देवी) के साथ सदल-बल अपने राज्य के भ्रमण में निकले थे, जब वे वापस लौट रहे थे, तो प्रात: काल का समय था। राजा मोरध्वज खारुन नदी के उस पार थे, नदी पार करते समय मन में विचार आया कि प्रात: कालीन दिनचर्या से निवृत्त होकर ही आगे यात्रा की जाए। यह सोचकर नदी किनारे (वर्तमान महादेवघाट) पर अपने पड़ाव डलवा दिए। दासियां कपड़े का पर्दा कर रानी को स्नान कराने नदी की ओर ले जाने लगीं। जैसे ही नदी के पास पहुंचीं तो रानी व उनकी दासियां देखती हैं कि बहुत बड़ी शिला पानी में पड़ी हुई है और तीन विशालकाय भुजंग (सर्प) तीन ओर से फन काढ़े घूम रहे थे। यह दृश्य देखकर वे सभी डर गईं और चिल्लाते हुए पड़ाव में लौट आईं। सारा समाचार राजा को भिजवाया गया।
समाचार मिलते ही राजा तुरंत उस स्थान पर आए। उन्होंने भी यह दृश्य देखा तो आश्चर्य चकित रह गए। तत्काल अपने राज ज्योतिषी व राजपुरोहित को बुलवाया। उन्होंने भी देखा और ध्यान करके राजा को बताया कि हे राजन यह पत्थर नहीं देवी की मूर्ति है तथा उल्टी पड़ी हुई है। उनके बताई सलाह द्वारा राजा मोरध्वज ने स्नान आदि के पश्चात विधिपूर्वक पूजन किया और शिला की ओर धीर-धीरे बढ़ने लगे। तीन विशालकाय सर्प वहां से एक-एक कर सरकने लगे। उनके हट जाने के बाद राजा ने उस शिला को स्पर्श कर प्रणाम किया और सीधा करवाया। सभी लोग यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि वह शिला नहीं बल्कि सिंह पर खड़ी हुई तथा महिषासुरमर्दिनी रूप में अष्टभुजी भगवती की मूर्ति हैं। यह देख सभी ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।
उस समय मूर्ति से आवाज निकली। हे राजन! मैं तुम्हारी कुल देवी हूँ। तुम मेरी पूजा कर प्रतिष्ठा करो, मैं स्वयं महामाया हूँ। राजा ने अपने पंडितों, आचार्यों व ज्योतिषियों से विचार विमर्श कर सलाह ली। सभी ने सलाह दी कि भगवती माँ महामाया की प्राण-प्रतिष्ठा की जाए। तभी जानकारी प्राप्त हुई कि वर्तमान पुरानी बस्ती क्षेत्र में एक नये मंदिर का निर्माण किसी अन्य देवता के लिए किया गया है। उसी मंदिर को देवी के आदेश के अनुसार ही कुछ संशोधन करते हुए निर्माण कार्य को पूरा करके पूर्णत: वैदिक व तांत्रिक विधि से खारुन नदी से लाकर आदिशक्ति माँ महामाया की प्राण प्रतिष्ठा की गई।

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