Article: Sampada kerni
निर्वासित तिब्बती समुदाय के पास अब न केवल बाकायदा निर्वाचित संसद है बल्कि उसी की तर्ज पर स्थानीय संसदें भी हैं। 18 साल पूरा कर चुके हर निर्वासित तिब्बती को वोट देने का अधिकार है और 25 साल के हो चुके हर तिब्बती को संसद के लिए होने वाले चुनाव में खड़े होने का अधिकार है। निर्वासित तिब्बती समुदाय की लोकतांत्रिक यात्रा मानवीय इतिहास का एक दुर्लभ उदाहरण इस मामले में है कि इसमें समाज के धार्मिक तथा आध्यात्मिक प्रमुख ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए अपनी शक्तियां छोड़ीं। निश्चित रूप से दलाई लामा की अगुआई में तिब्बती समाज दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए एक नई मिसाल बन कर उभरा है। नए साल के तीसरे दिन जब बाकी पूरी दुनिया वर्ष 2021 का स्वागत करने के बाद इस उधेड़बुन में लगी थी कि आने वाला साल दरअसल पिछले का ही विस्तार है या इसमें कुछ नया, कुछ अनूठा भी है, तब निर्वासित तिब्बतियों का छोटा सा समुदाय लोकतंत्र के उस दीये की लौ बरकरार रखने में जुटा था जो बड़ी मुश्किलों से दलाई लामा ने उसके भीतर प्रज्जवलित किया है। तीन जनवरी को तिब्बती समुदाय की राजधानी मानी जाने वाली धर्मशाला समेत दुनिया भर में फैले तिब्बतियों ने अपना अगला सिक्यॉन्ग (तिब्बत की निर्वासित सरकार का प्रमुख) और 17वीं संसद के सदस्य चुनने के लिए वोट दिए। कम लोग जानते हैं कि 1959 में अपनी जन्मभूमि से निर्वासित होने के बाद तिब्बतियों का समुदाय जिन कुछ कठिन लड़ाइयों में जुटा रहा उनमें अपनी परंपरा और संस्कृति के मूल तत्वों को अक्षुण्ण रखते हुए लोकतंत्र को अपनाने की जद्दोजहद भी शामिल है। हालांकि दलाई लामा की अगुआई में 1959 तक तिब्बती समाज जिस तरह से चला, उसे लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। साम्यवादी चीन तो घोषित रूप से तानाशाही शासन पद्धति को अपनाए हुए है। ऐसे में अगर निर्वासित तिब्बती समुदाय लोकतंत्र की राह पर बढ़ता हुआ नजर आ रहा है तो उसका पूरा श्रेय आधुनिक वैश्विक मूल्यों से मौजूदा दलाई लामा के व्यक्तिगत जुड़ाव और उनके प्रति उनकी निजी प्रतिबद्धता को जाता है। 1963 में तैयार संविधान के प्रारूप की भूमिका में उन्होंने कहा था कि ‘मार्च 1959 में तिब्बत से निकलने से पहले ही मैं इस निष्कर्ष पर पहुंच चुका था कि आधुनिक दुनिया के बदलते हालात को देखते हुए तिब्बत में शासन पद्धति में बदलाव लाने होंगे ताकि राज्य की सामाजिक और आर्थिक नीतियां तय करने में लोगों के निर्वाचित प्रतिनिधियों की भूमिका और ज्यादा प्रभावी बनाई जा सके।दलाई लामा की यह समझ न केवल दिनोंदिन मजबूत होती गई, बल्कि उसकी झलक अपने समाज को इसके अनुरूप ढालने की उनकी कोशिशों में भी लगातार दिखती रही। 1989 में उन्होंने अपने समाज के और ज्यादा लोकतंत्रीकरण पर जोर देते हुए सरकार के प्रमुख का भी चुनाव करने का सुझाव दिया। हालांकि तिब्बती समाज के अन्य नेता महसूस करते थे कि दलाई लामा में निहित उनकी आस्था किसी भी अन्य वैकल्पिक व्यवस्था के मुकाबले ज्यादा लोकतांत्रिक है। मगर दलाई लामा ने समाज में लोकतांत्रिक चेतना स्थापित करने की अपनी कोशिशों में ढील नहीं आने दी और उनके प्रयासों की बदौलत तिब्बती समाज इंच-इंच उस तरफ खिसकता रहा। आखिर 2011 में 10 मार्च को तिब्बती राष्ट्रीय दिवस के मौके पर दलाई लामा ने कह दिया कि चार दिन बाद शुरू हो रहे 14वीं तिब्बती निर्वासित संसद के 11वें सत्र में वे औपचारिक तौर पर अपना राजनीतिक पद छोड़ने का एलान कर देंगे। जैसी कि अपेक्षा थी दो दिनों की बहस के बाद निर्वासित संसद ने लगभग सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर दलाई लामा से अनुरोध किया कि वह राजनीतिक पद छोड़ने के फैसले पर जोर न दें। मगर दलाई लामा ने इस अनुरोध को नामंजूर कर दिया। आखिर 20 मार्च को चुनाव हुए और 27 अप्रैल 2011 को सेंट्रल टिबेटन एडमिनिस्ट्रेशन के चीफ इलेक्शन कमिश्नर ने डॉ. लोबसांग सांगय को सरकार का प्रमुख (कलोन त्रिपा) घोषित कर दिया। 2012 से इस पद को सिक्यॉन्ग कहा जाने लगा जिसके लिए अंग्रेजी में प्रेसिडेंट शब्द को उपयुक्त माना गया।