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क्या कोरोना वायरस को चीनी वायरस कहना गलत है? Banarsi Dutt (Chief Editor)

www.youngorganiser.com

Jammu(Tawi) 180001(J&K Union Territory)

क्या कोरोना वायरस को चीनी वायरस कहना गलत है अक्सर कई रोगों को जगहों से जोड़ दिया जाता है। यह एक पुरानी परंपरा है। इबोला वायरस को कांगो की एक नदी का नाम दिया गया माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति यहीं हुई थी। इसी तरह, जीका वायरस को युगांडा के एक जंगल से अपना नाम मिला। अगर यह हो सकता है तो चीन वायरस या वुहान वायरस क्यों गलत है? पांच साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक प्रस्ताव पास करके यह बताया था कि संक्रमण फैलाने वाले नए रोगों और रोगाणुओं का नामकरण कैसे किया जाए। इसे नेमिंग प्रोटोकॉल भी माना जाता है। यह प्रस्ताव कहता है कि किसी रोग या रोगाणु का नाम किसी जगह या व्यक्ति से जोड़कर नहीं रखा जा सकता। कुछ समय पहले कुछ वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीवाणु का पता लगाया था, जिस पर कोई एंटीबायोटिक असर नहीं करता। जब इसे ‘न्यू डेल्ही बग’ कहा गया तो भारत ने इसका खासा विरोध किया था और अंत में इसी नेमिंग प्रोटोकॉल के चलते उसका नाम बदलकर ‘सुपर बग’ रखा गया। यानी मामला सिर्फ अमेरिका की छीजती ताकत का नहीं है, चीनी वायरस कहना नैतिक रूप से भी गलत था। कहा जाता है कि रोगों के नाम सिर्फ नाम नहीं होते, अक्सर उनके आस-पास एक राजनीति होती है। शायद इसलिए तमाम विवादों के बीच कोरोना वायरस को अभी भी बहुत से लोग वुहान वायरस ही कह रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तो चंद रोज पहले तक इसे चीनी वायरस कह रहे थे। चीन मानता है कि यह सब उसे चिढ़ाने के लिए कहा जा रहा है जवाब में वह यह साबित करने में जुटा है कि यह वायरस दरअसल, अमेरिका में पैदा हुआ और वहीं से चीन आया था। यह पहला मौका नहीं है जब किसी महामारी को लेकर दुनिया में इस तरह की राजनीति चल रही हो। स्पैनिश फ्लू के उदाहरण से इसे ज्यादा अच्छी तरह समझा जा सकता है। दिलचस्प बात यह है कि 102 साल पहले पूरी दुनिया में लाखों या शायद करोड़ों लोगों की जान लेने वाला ‘स्पैनिश फ्लूू’ स्पेन से नहीं शुरू हुआ था, लेकिन पहले विश्व युद्ध के बाद उपजे शक्ति संतुलन में स्पेन ऐसी जगह खड़ा था कि वह इस नामकरण को रोक भी नहीं सका। एक सदी पहले की वह महामारी कहां से शुरू हुई इसे लेकर विशेषज्ञ अभी तक कोई स्पष्ट राय नहीं बना सके हैं। एक धारणा यह है कि यह महामारी अमेरिका के बोस्टन हार्बर आइलैंड से शुरू हुई थी। वह पहले विश्व युद्ध के अंतिम दिन थे, एक रोग तेजी से फैल रहा था और एक के बाद एक कई मोर्चों पर फौजों को अपना शिकार बना रहा था। लेकिन कोई भी देश इसे स्वीकार नहीं करना चाहता था क्योंकि इससे पूरी सेना हतोत्साहित हो सकती थी। फ्रांस की सेना ने इसे एक कोड नाम दे दिया- डिजीज इलेवन, यानी रोग नंबर ग्यारह। यह शायद उस फ्लू को दिया गया पहला नाम था। इसी दौरान स्पेन एक ऐसा देश था जिसकी सेना ने आधिकारिक रूप से यह स्वीकार किया कि एक रोग है जो तेजी से फैल रहा है। इसी स्वीकार के चलते शत्रु देशों ने इसे स्पैनिश फ्लूू कहना शुरू कर दिया। हालांकि यह रोग तेजी से फैल रहा था यह नाम उतनी तेजी से नहीं फैला। विश्व युद्ध लगभग खत्म हो चुका था। सैनिक अपने-अपने घर लौट रहे थे और साथ ले जा रहे थे एक अनजान-सी बीमारी। हर देश में इसे लेकर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रिया दिखी। सबसे आसान रास्ता था कि इसकी जिम्मेदारी अपने दुश्मन देश पर मढ़ दी जाए। स्पेन का कहना था कि यह बीमारी पुर्तगाल से उसके यहां आई है जबकि पुर्तगाल कह रहा था कि यह स्पेन से आई है। पर्सिया का कहना था कि इसे ब्रिटेन ने उसके यहां भेजा है। सेनेगल ने इसे ‘ब्राजीलियन फ्लू कहा, जबकि ब्राजील इसको जर्मन फ्लू कह रहा था। तब रूस में क्रांति शुरू हो चुकी थी और बोल्शेविक सेनाएं पोलैंड में घुसपैठ कर रही थीं इसलिए जब यह रोग पोलैंड में फैला तो इसे बोल्शेविक फ्लू कहा गया। लेकिन सभी जगह इसे दुश्मन देश के मत्थे मढ़ा गया हो, ऐसा भी नहीं था। 29 मई, 1918 को बंबई अब मुंबई के तट पर एक जहाज ने लंगर डाला। युद्ध से भारतीय सैनिकों को वापस लेकर आया यह जहाज उस तट पर 48 घंटे तक रहा। 10 जून को खबर आई कि तट पर तैनात सात पुलिस वालों की एक नई बीमारी से मौत हो गई है। तब तक जहाज में आए सैनिक के साथ यह बीमारी पूरे देश में फैल चुकी थी। चूंकि इस बीमारी की पहली खबर बंबई से आई थी इसलिए भारतीय डॉक्टरों ने इसे ‘बॉम्बे फ्लू’ कहना शुरू कर दिया। हालांकि जब यह रोग भारत में महामारी बना, तो आम लोगों ने इसे प्लेग ही माना और यही कहा। उनके लिए महामारी का अर्थ ही था प्लेग। जापान में इसका प्रवेश कुछ अलग तरीके से हुआ था। कुछ सूमो पहलवान कुश्ती टूर्नामेंट खेलने के लिए विदेश गए हुए थे। जब वे लौटे तो बीमार थे। इन्हीं के जरिए यह रोग जापान में फैला इसलिए वहां इसे ‘सूमो फ्लू’ कहा गया। लेकिन जल्द ही सभी देशों को यह एहसास हो गया कि उनके यहां जो बीमारी फैल रही है वह दरअसल एक वैश्विक महामारी है। अब अलग-अलग नाम देने की बजाय एक आम नाम की जरूरत थी। और वह नाम हुआ, स्पैनिश फ्लू। लेकिन जब बहुत सारे दूसरे नाम थे, तो यही नाम क्यों स्वीकार हुआ? शायद इसलिए कि पहला विश्व युद्ध एलाइड पॉवर्स ने जीता था। इस गुट के अग्रणी देश ब्रिटेन और रूस थे। वे अपनी ताकत का लोहा मनवा चुके थे, इसलिए वही नाम चल निकला, जो उन्होंने स्वीकार किया। ब्रिटेन और रूस ने तो उस समय अपनी बात मनवा ली थी, लेकिन इस बार वह अमेरिका अपनी बात क्यों नहीं मनवा सका, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी ताकत माना जाता है… कहीं यह अमेरिका की छीजती ताकत का संकेत तो नहीं … बात सिर्फ नामकरण की नहीं है। पहली बार दुनिया में ऐसा संकट छाया है जिसमें अमेरिका खुद बेबस और हताश दिख रहा है। यह तो खैर शुरू से ही कहा जा रहा है कि पिछली आधी सदी में यह पहला ऐसा संकट है जब अमेरिका दुनिया का नेतृत्व करता हुआ नहीं दिखाई दे रहा। 

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